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११ जनवरी, १९७१
माताजी लगभग डेढ़ महीनेतक लंबी शारी- रिक यातनामें रहीं । उसके बाद स्मृतिके आधारपर यह नोट लिखा गया था :
भौतिक दृष्टिमें बहुत अधिक लगातार एकाग्रताकी जरूरत है । भौतिक दृष्टि स्थिर बनानेमें सहायता करती है । वह सातत्य देती है । श्रवणके बारेमें भी यही बात है । तो जब वे दोनों न हों, व्यक्ति प्रत्यक्ष रूपमें चीजके बारेमें सचेतन हों जाता है और इससे सत्य ज्ञान आता है । अति- मानस निश्चय ही इस तरीकेसे काम करेगा ।
भौतिक दृष्टि और श्रुतिको पृष्ठभुतिमें फेंक दिया गया है ताकि चेतनाकी वृद्धिके लिये, चेतनाद्वारा तादात्म्यके लिये स्थान बने ।
कहने और जाननेका साधन है चेतनाका वस्तु या व्यक्तिके साथ तादात्म्य । सामान्य पृथक्ताका भाव होनेकी जगह सतत ऐक्यका भाव है । बहुत मजे- दार अनुभूतियां है । ऐसे लोग हैं जो मुझे बुलाते और मेरे बारेमें सोचते है और यह बात मेरी चेतनाके क्षेत्रमें आ जाती है । कुछ समयके बाद
मुझे बताया जाता है : ''अमुक व्यक्ति आया है,'' या. ''अमुक व्यक्तिको कुछ हो गया है,'' और मैं कहती हू : ''मुझे मालूम है ।'' जिस समय घटना घटी थी उस समय मुझे कुछ नहीं बताया गया था, लेकिन मै उससे बारेमें. सचेतन थी मानों वह मेरी सत्ताके !क अंगमें हुई हों ।
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